गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

कुछ इस तरह जूझती ज़िन्दगी एक बड़े हस्पताल में

6 बाय 3 का बिस्तर पर
एक 5 फ़ीट का बूढ़ा कंकाल
दमा और दम, दोनों है बेहाल
कुछ इस तरह जूझती ज़िन्दगी
एक बड़े हस्पताल में

जान फुंकती है कुछ दवा के नाम का जहर
पल दो पल की देरी, फिर वो ही बुरा हाल
मरीज के परिवार को भी , जी का जंजाल
कुछ इस तरह जूझती ज़िन्दगी
एक बड़े हस्पताल में

पूछे कोई बीमारी के नाम पर, चार सुनहरे नाम
इन्फेक्शन, टाइफाइड, मलेरिया और निमोनिया
मालूम हो कर भी, ना कोई होश ना कोई आराम
कुछ इस तरह जूझती ज़िन्दगी
एक बड़े हस्पताल में

मेरे घर की रोटी चलती रहे,
बेशक किसी की हड्डिया जलती रहे
बीमारियां यूँ ही, जिस्म में पलती रहे
कोर्स है मेरा चार दिन का, पांचवे दिन की गारन्टी नहीं
पूरी फीस के सिवा, मरीज की लाइबलिटी नहीं
कुछ इस तरह जूझती ज़िन्दगी
एक बड़े हस्पताल में

चंद साँसे ले, कोई चला जाएगा
फिर क्या हुआ, कोई चला गया
कल और कोई संभल ना पायेगा
फिर चलता हुआ, एक शख्स आएगा
मेरा धंधा फिर से चमक जाएगा
कुछ इस तरह जूझती ज़िन्दगी
एक बड़े हस्पताल में

# कारोबार जरूरी है पर दूसरे के जिस्म का ठीक नहीं
   धंधा वेश्या भी करती है, ज़िन्दगी लेने से वो भी डरती है
   कब तक चिताओ पर , यूँ रोटिया बना कर खायेगा
   एक दिन खुद तू भी, इस अग्नि में भस्म पायेगा
   बाकि सिर्फ इस जहाँ में, तेरा गुनाह किसी को रुलाएगा।।
 
नोट:- एक दोस्त के पिता को पिछले एक महीने में डॉक्टर को चार बार दिखाया, हर बार नया मर्ज बताया॥ पर कभी उसका इलाज ना हो पाया।। इस सन्दर्भ प्रस्तुत है ये ब्लॉग।। 

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