रविवार, 28 सितंबर 2014

कुछ लम्हें जो तुझ से

सांस मेरी जो अटकी तुझे भी चैन ना होगा
जिस्म मेरा ज़ख़्मी होगा लहू तेरा ही होगा

दर्द इस तरह रुलाएगा तुझे
करार ना होगा मुझे

बह जाने दो दर्द को आंसुओं के रास्ते
दिल को यूँ बोझ तले रखा नहीं जाता

आरजू बेशक हो अधूरी मेरे यार
चाहत पर न होगा तेरा इख्तियार

होंठ मेरे प्यासे रहे तेरे अमृत से
पर जो नैन बहे तेरे लिए वो दर्द पिया बहुत

जान तू होगी मेरी ये न समझना
मेरी जिंदगी कैद है यादों की तस्वीरो में

छन से छीना जो तूने तोड़ दिया दिल मेरा
कुछ तो दरारे आई होगी तुझे असर है मेरा

लफ्ज़ तू संभल के कर इस्तेमाल
कोई बेक़सूर न हो बे हाल

चाल तेरी गहरी थी जो समझ ना पाया
तेरे आँखों के अपनेपन में तेरे जहन का फर्क नजर ना आया

हो सके तो इतना करना
मुझ सा और किसी को बर्बाद ना करना।

महान संस्कृति का जनाजा

भारत की संस्कृति की बात करते है हम तो मुझे बड़ी हंसी आती है। किस देश की संस्कृति जहाँ सदा से व्यवहार बड़े छोटे को देखकर बनाया गया।।

सबसे पहले तो आप देख सकते है एक वर्ग शिक्षित था और एक वर्ग बाहुबल दोनों ने जैसे चाहा वैसा नियम कमजोर व् निमन वर्ग को शोषित किया।।

शादी की बात करते है की हमारे धर्मं ने एक शादी की अनुमति दी।। तो वो राजा किस भारत के थे जो जंगल में सुंदर कन्या देख गन्धर्व विवाह कर लेते थे और घर तक जाते जाते भूल भी जाते थे।।

फिर बात करते है महिलाओ के सम्मान की इतना सम्मान करते थे की किसी भी बेवा को उसके पति के साथ जिन्दा जला (सती)दिया जाता था इस महान संस्कृति में।।

इंसानियत शब्द का प्रयोग निम्न वर्ग ही करता था वो ही आज करता है।। जब तक ना समानता का भाव होगा वो समाज विकास और एकरूपता की बात करे तो अट्ठाहस से ज्यादा कुछ नहीं।।

मेरा कहना इतना है की हमे सहजता से अपनी बुराइयों को स्वीकार कर दृढ़ता से उन्हें दूर करना चाहिए।।

बुलंद वो शिकारी नहीं जिसने शेर का शिकार किया
वो चूहा है जिसने जाल काट शेर को बचाया।।

शनिवार, 27 सितंबर 2014

सार्थक मूल्य

आप सब या हम सब जीवन को बेहतर जीने की कामना रखते है। कोई भी शख्श नहीं होगा जो अपने जीवन को अर्थहीन और विवेक शून्य जीना चाहता होगा।। हम दिन प्रतिदिन विकास की दौड़ में इतना आगे आ चुके है की हम ने अपनी नैतिकता को पीछे छोड़ दिया है। क्या यह जीवन सार्थक है।। ज्यादातर लोग यही कहेंगे क्या करे जीने के लिए सब करना पड़ता है।। जीने के लिए तो दिन भर मेहनत कर दो रोटी मजदूर भी जुटा रहा है।।
असलियत में हम जीने के लिए नहीं अपने चकाचौंध वाले समाज की बराबरी के लिए ये सब करते है।। पर ये नहीं जानते ये सब पाने की चाहत में वो वक़्त गँवा देते है जब उन वस्तुओ का असली लाभ उठा सकते थे।।
जैसे आजकल किसी कंपनी का विज्ञापन आता है 60 वर्ष की उम्र में आप बैंकाक घूम कर आईये।। वो क्या करेंगे बैंकाक? क्या वो मोटर नाव का आनंद ले सकते है
क्या वो पेरा ग्लाइडिंग कर सकते है
ऐसे काफी एडवेंचर है जिनका आप जवानी में ही लुत्फ़ उठा सकते है।। रही बात दृश्य की वो तो घर पर टीवी में कहीं का भी देख सकते है।। मेरा मकसद किसी का दिल दुखाना नहीं सिर्फ इतना कहना है की
"आज थोड़े में भी वो जीवन का आनंद ले सकते है जो उम्र बीत जाने पर ज्यादा में भी नहीं ले सकत"

# यूँ हसीं लम्हे खो गए उनकी चाहत म
वो है की बेवफा निकले

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

कड़वे शब्द बोलता हूँ