बुधवार, 15 अप्रैल 2015

कोई अर्ज पूछे तो कोई मर्ज़

नाकाबिल हूँ में अपना दर्द बताने में
होंसला नहीं । ख्वाहिश जताने में
कोई अर्ज पूछे तो कोई मर्ज़

अर्ज लिखने को दिल करता है
तो मर्ज आड़े आ जाता है
मर्ज़ जाहिर करता हूँ
कोई अर्ज लगा बैठता है
कोई अर्ज पूछे तो कोई मर्ज़

खामियां नजर आती है उनको मेरे शुकराने में
ढूंढते है कसीदे, मेरे थोडा मुस्कराने में
नजर ना आया उनसे हंसीन दोस्त ज़माने में
कोई अर्ज पूछे तो कोई मर्ज़

सुबह उनका नजाकत से वो सलाम
मिलता है मेरी रूह को, सकूँ सा आराम
सुनकर उनके होंठो पर, नाचीज का नाम
कोई अर्ज पूछे तो कोई मर्ज़

पसंद आते ना हो उनको बेशक शब्द हमारें
पर खूब लूटते है हमारी आँखों से वो नजारें
बस एक तलाश होती कि कब हम उनको पुकारें
कोई अर्ज पूछे तो कोई मर्ज़

मेरी नादानियों को अर्ज समझना
हो सके तो मर्ज समझ ना दिल से लगाना
हो कोई शिकवा भी अगर तुम्हें मेरे दोस्त
रूठ जाना, मगर दोस्त को ना ठुकराना
कोई अर्ज पूछे तो कोई मर्ज़

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कड़वे शब्द बोलता हूँ