बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

कविता

अभी टूट कर गिरा था
कि नए कोंपले फुट पड़ी

आँधी से जजर्र हुआ वृक्ष
नए अध्याय की और बढ़ चला

निशान अभी बाकि है क्षति के
बिखर सौ टुकड़े हुए मति के

हारी नहीं हिम्मत उठ खड़ा हुआ हूँ
लडख़ड़ा ही सही चलने लगा हूँ

फिर एक नया मौसम आएगा
मेरी शाखाओ से चमन लहराएगा

टूटी थी आस जिनकी
खुशियों का समां बंध जायेगा

ये टूटा हुआ दरख्त
फिर सम्भल जायेगा

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

बैसाखियों पर ज़िन्दगी

आसाँ नहीं होती
बैसाखियों पर ज़िन्दगी

मोहताज हो जाती है जिंद सहारे को
ढूंढ़ नहीं सकता किसी किनारे को

आसाँ नहीं होती
बैसाखियों पर ज़िन्दगी

लाचारी के आलम में अपने भी रूठ जाते है
दूसरों का बोझ उठाते वक़्त रिश्ते भी टूट जाते है

आसाँ नहीं होती
बैसाखियों पर ज़िन्दगी

दया की नजरें चुभती है इन आँखों को
वक़्त तोड़ नहीं सकता बेबसी की सलाखों को

आसाँ नहीं होती
बैसाखियों पर ज़िन्दगी
आसाँ नहीं होती
बैसाखियों पर ज़िन्दगी

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मुझे भी बिन बैसाखी जीने की चाहत है
ये ही उम्मीद जीवन में एक राहत है

कड़वे शब्द बोलता हूँ