गुरुवार, 27 जून 2019

तमाशबीन ज़िन्दगी

एक हफ्ता हो गया घुटते घुटते पर किस से कहें ये समझ नही आ रहा, ऐसा लग रहा है कि जैसे सारी दुनियाँ ही मेरे खिलाफ हो गई है, शायद इसलिए लग रहा है जिस दफ्तर में 6 साल से बिना उफ्फ तक किए जिन लोगों के लिए काम किया वो आज विरोध में आ खड़े हुए है उन्हें निज स्वार्थ में अच्छे बुरे का फर्क नजर नही आ रहा, मेने जब जॉइन किया था तब से लेकर आजतक अपने इंचार्ज की कभी किसी बात से मना नही किया, यहाँ तक वो सारा काम मुझ पर छोड़ अपनी पार्टियों में मशरूफ़ रहते और आज उन्हें मुझ में खामियाँ नजर आ रही वो भी सिर्फ उनकी किसी खास कर्मचारी की परेशानियों की वजह से, अब अधिकारी कोई फैसला लें, ये उनका अधिकार है मगर स्थायी कर्मचारियों को वक़्त के साथ इतना घमंड हो जाता है कि वो स्कीम और उनमें लगे अनुबंध कर्मचारियों को अपनी जायदाद समझने लगते है, मेरी खामी यह कि मैने किसी को पलट कर जवाब देना नही सीखा, अकेले घुटता रहता हूँ।
बात नई नही है पिछले अधिकारियों के समय भी दो बार ऐसा हो चुका है कोई भी जिम्मेदारी भरे कार्य आते है तो काम के लिए सबसे आगे कर देते है जब अपनी सूझबूझ से उस कार्य में सफलता मिलने पर अधिकारी का प्रोत्साहन मिलता है तो सबके सीने पर साँप लौटने लगे जाते है, चुनाव  के दौरान ऐसा कोई कार्य नही जो न किया हो एक ऑपरेटर, ड्राइवर, स्टेनों व अन्य कई कार्य जो शायद मेरी क्षमताओं से परे थे पर मैने माथे पर शिकन आए बिना सब बखूबी निभाने की कोशिश की, लेकिन उस दौरान भी बरसो से काम कर रहे मेरे सहकर्मियों ने भी एक प्रतिशत सहयोग नही दिया, उनसे अधिकारी के कहने पर कोई रिपोर्ट मांगने चला जाता तो उनके क्रोधाग्नि से अपमान के घूंट पीते हुए भी चुनाव का कार्य पूर्ण करवाया। हालांकि मैं ऐसी कड़ी नही था कि मेरे बिना चुनाव में कोई  फर्क पड़ता क्योंकि अधिकारी द्वारा होमवर्क इतना बेहतर था कि वो सब सामंजस्य बिठा लेते,  चलो किसी तरीके से चुनाव तो निबट गया लेकिन उसके बाद एक मीटिंग के दौरान अधिकारी द्वारा तारीफ किये जाने से सभी के मुँह और मुझ से चिढ़ गए, इस दौरान तो वो भी लोग चिढ़ गए जो सहकर्मी के साथ दोस्त होने का भी दावे कर रहे थे, सब भुला दिया यह सोचकर कि चलो इंचार्ज और अधिकारी के मापदंडों/आशाओं पर तो खरा उतरा हूँ मुझे कार्य करने में खुशी मिलती है और उसकी पहचान हो जाए तो खुशी दुगनी हो जाती है। लेकिन पिछले सप्ताह कमर में अचानक दर्द हो गया तो इंचार्ज के पास छुट्टी भिजवाई तो उसने साफ मना कर दिया यह कहकर कि इसका तो रोज का काम है मैं नही मंजूर करता सीधे अधिकारी से करवा लें, अब ये बात कमर दर्द से भी ज्यादा दर्द दे रही थी, यार जिस व्यक्ति के एक इशारे पर दिन रात काम किया, कभी यह नही सोचा कि काम मेरा है या नहीं, आज उसने यह बात कह दी। किसी भी तरह एक दिन की छुट्टी काटने के बाद, दफ्तर आ गया, अभी भी कमर से सीधा खड़े होकर चला नही जा रहा था तो एक और नया खंजर सीने में चला दिया, अधिकारी द्वारा छुट्टी वाले दिन इंचार्ज के खास कर्मचारी को एक अन्य कार्य की जिम्मेदारी दी दी गई और शायद इंचार्ज की अधिकारी से इस बारे बहस भी हो गई हो लेकिन वो सारा गुस्सा कमरे में आकर मुझ पर और एक सहायक अकाउंटेंट पर उतार दिया। और रोज छोटी छोटी बातों पर तानों जैसा व्यवहार करने लगे। जैसे कि मैं कोई बड़ा ही गुनाह कर आया हूँ, जब इतनी परेशानी होती है इनको फिर अधिकारी के सामने मत भेजे, इनको आराम भी चाहिए और फिर सम्मान भी और शायद और कुछ भी जो उन्हें अधिकारी विश्वास में न होने के कारण मिल नही पाता। मन यो करता है छोड़ दूँ नौकरी पर सामाजिक ढांचा ऐसा है कि परिवार की सुख सुविधाओं के लिए काम तो करना पड़ता है, और समस्याएं तो सब जगह है पर मेरा शायद रिएक्ट करना कुछ ज्यादा हो, पर घुटन को दूर करने के लिए लिखना भी जरूरी था।
बल्कि दफ्तर में चल रही समस्याओं के कुछ समाधान भी थे मेरे मन में, मेने तो इस डर से अधिकारी से एक भी सुझाव शेयर नही किया कि कल को मेरे पीछे और पड़ जाएंगे कि जो हो रहा है सब मेरी मर्जी से हो रहा है। कभी कभी इनकी विकृत मानसिकता पर हंसी भी आती है।
बस ईश्वर से यह ही प्रार्थना करता हूँ मेरी सहनशक्ति को बरकरार रखें ताकि कभी किसी से मैं दुर्व्यवहार न करूं क्योंकि जब क्रोध के पल चले जाते है तब इंसान को ज्यादा पछतावा होता है। कोशिश करूँगा कि लिखने के पश्चात कल स्वच्छ मन से अच्छा कार्य कर सकूँ क्योंकि अशांत मन से सब गलत ही होता है।

शुक्रवार, 21 जून 2019

उम्मीद का टुकड़ा

NDTV पर अभी एक रिपोर्ट आ रही थी कि 45 दिन पहले उड़ीसा में फोनी तूफान आया जिसमें ज्यादा दर्शाया गया कि ज्यादा जीवन को हानि न होने के कारण राष्ट्रीय स्तर से यह मुद्दा गायब हो गया कि जान कि हानि न हो पर मॉल की जो हानि हुई उसकी आपूर्ति नही आज तक हुई। लोग अब भी जद्दोजहद कर रहे है दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए, रिपोर्ट में कुछ दृश्य थे कि घर की लकड़ी की छत थी जिस से कुछ लकड़ी की बल्लियों का हिस्सा नीचे गिर गया, कोई दीवार का हिस्सा कच्चा था तो वो गिर गया। ऐसे छोटे छोटे विषय थे जिस से रिपोर्टर ने दर्शाया कि उनका जीवन कितना कष्टदायी है स्वभाविक है वो उनके जीवन की तुलना अपने वातानुकलित कमरे के जीवन से कर रहा था।
सरकार से मदद नही मिली, इनको राशन नही आया, पैसे नही मील इत्यादि।
मेरा वर्शन सुनने से पहले इतना समझ लीजिए कि मेरी नकारात्मक बातों में दूरगामी सकारात्मकता है जो व्यक्ति को तब समझ आती है जब वह अपनी महत्वकांक्षी सोच की वजह से सब खो चुका होता है।
अब वो पत्रकार दिखा रहा था कि उन लोगों के पास झोपड़ी या कच्चे मकान थे तो जायज है तूफान से पहले भी वैसे ही मकान थे बस उनकी छत और दीवार सलामत थी। जाहिर है कि ऐसे गरीब परिवार के लोग काफी मेहनतकश होंगे, उनका जीवन कड़े परिश्रम से जुड़ा होगा। तो क्या वो मेहनतकश आदमी 45 दिन में अपने झोपड़े की 4 बल्लियों को ऊपर रख दोबारा उनपर घास फूस नही रख सकता, बिल्कुल रख सकता है मगर कुछ महत्वकांक्षी लोग उन्हें सिखाते है कि मत बनाओ नही तो कोई सरकारी मदद नही आएगी इत्यादि प्रोलोभनो से उसकव भ्रमित कर देते है। ये तो थी गरीव परिवारों की बात जिन्हें न शिक्षा मिली न दीक्षा।
उस से थोड़ा ऊपर जाते है निम्न मध्यम वर्गीय परिवार जिनका गुजारा दो कमरों के मकान में बेहतर हो रहा होता है कि अचानक उनका कोई समृद्ध रिश्तेदार आता है जो उन्हें महसूस करवाता है कि इतने गर्मी के मौसम में तुम कैसे रह लेते हो हम तो अपने घर कूलर और ac चलाकर रखते है, ऐसे नुकीले व्यंग्य चलाकर उन्हें हीनता का बोध कराएगा कि उनको लगेगा वास्तविकता में उनके पास तो भौतिक सुख ही नही है। ऐसी भ्रांतियां समाज में असंतोष व दिशाहीनता पैदा करती है। 
अच्छा कभी आप ध्यान देना कुछ क्षेत्रों में लोगों के मकानों से बेहतर वहाँ का मंदिर/मस्जिद/चर्च मिलते है, जबकि वह भी उन लोगो द्वारा बनाया गया है जो कि बेहतर घरों में नही रहते है । जानते हो कैसे?
क्योंकि बचपन से उन्हें शिक्षा मिली कि भगवान का स्थान सबसे ऊंचा है और उसका घर भी तुमसें बेहतर ही होगा जिसके लिए वो सब मिलकर दान व श्रम से भव्य निर्माण करते है।
70 वर्ष पूर्व इस देश में कोई सरकार नहीं थी जो मदद करती थी लेकिन तब भी लोग भव्य मकान बनाकर व बेहतर जीवन जीते थे। मदद के लिए वो एक दूसरे का हाथ बनते थे। क्योंकि जब व्यक्ति समाजिक प्राणी था। उसे भरोसा उस सामुदायिक ढाँचे पर था जहाँ वो सब मिलकर सभी समस्याओं का स्थानीय हल निकालते थे किसी करिश्में का इंतजार नही करते थे।
खैर छोड़िए बात हो रही थी फैनी तूफान की और उसकी तबाही की, रिपोर्टर आगे दिखाता है कि एक संस्था कब्बडी टीम लोगों को रोज 2 समय का खाना वितरित कर रही है और लोग सभी एक स्थान पर खाना खा रहे है। सभी कहेंगे कि बड़ा पुण्य का काम कर रहे है इसके लिए उनकी सराहना होनी चाहिए। जैसे वो रिपोर्टर कर भी रहा था।
लेकिन यहाँ तस्वीर कुछ अलग भी हो सकती थी, शहर से एक व्यक्ति आया गाँव में उसने लोगो को इकठ्ठा किया कि गाँव में सरकार की मदद आएगी , जो करना है हम सब लोगो को मिलकर करना है, उसने सभी संसाधनों पर गौर किया और पाया कि गाँव में  आजीविका के लिए पर्याप्त संसाधन थे लेकिन मनोबल, ज्ञान और दिशा के अभाव में सभी किस्मत को कोस रहे है। घर तैयार करने को सभी जरूरी सामान था लेकिन बनाने की कोई शुरुआत नही कर रहा था वजह थी किसी घर में कुछ युवा नही थे तो किसी घर में पर्याप्त समान नही था। हर घर में मवेशी व अन्य जरूरतों के समान थे जो कि शहर में उचित दामों पर मिलते है। तूफान ने तो तबाही शहर में भी मचाई थी लेकिन वहाँ के लोग कैसे जल्दी संभल गए सरकार तो वहाँ भी कोई सहायता लेकर नहीं पहुँची थी। लेकिन उनके पास एक ही लक्ष्य था कि खुद मेहनत से ही बेहतर जीवन बन सकता है।
शहर के उस व्यक्ति ने गाँव के लोगो को संगठित किया, और आकलन किया कि क्या संसाधन उपलब्ध है और कितनों की आवश्यकता है। कहाँ से धन एकत्रित हो सकता है और कहां से श्रम। गाँव में पशुओं की कमी नहीं थी और न पशुओं के लिए घास की, तो एक सीमा तक दूध जरूरतों से ज्यादा था जिसको शहर में बिक्री कर धन कमाया जा सकता था जिसके लिए उसने चयनित युवाओं की टीम बनाई। फिर कुछ युवाओं की टीम घरों के ढांचे परिवर्तन के लिए बनाई। इस तरह से सभी कार्यों को दिशा प्रदान करते हुए वहाँ के लोगों को स्वालम्बी बना दिया। और सीमित समय की भीख से छुटकारा दिला दिया।

कड़वे शब्द बोलता हूँ