शुक्रवार, 13 जनवरी 2017

ग़जल:- हर जर्रे की बात कहूँ तो......

हर जर्रे की बात कहूँ तो
यहाँ पर सब बिकता है
लहू और आंसुओ का
सैलाब भी बिकता तो है

हर जर्रे की बात कहूँ तो......

महकते हुए गुलाबों का
अर्क भी बिकता तो है
सुर्ख होंठो से हँसी का
सैलाब भी रुकता तो है

हर जर्रे की बात कहूँ तो......

हुस्न के बाजारों में
जज़्बात कहाँ टिकता है
हरी गली मोहल्ले में जिस्म तो है
ख़रीददार भी तो दिखता है

हर जर्रे की बात कहूँ तो......

ग़रीबी के चादर पर मेहनत का सौदा तो है
अमीरी के शौक़ पर, पसीना भी बहता तो है
चंद सिक्कों के लिए इंसान बिकता भी तो है

हर जर्रे की बात कहूँ तो......

क़िस्मत का भरोसा करे भी तो क्या
भाग्य में लिखा जो वो मिटता भी तो है
बस चलते रहो अँधेरी राहों पर
कभी कभी उजाला दिखता भी तो है

हर जर्रे की बात कहूँ तो
यहाँ पर सब बिकता है
लहू और आंसुओ का
सैलाब भी बिकता तो है

कड़वे शब्द बोलता हूँ