शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

चुनता नहीं कांटें फिर भी ज़ख़्मी हूँ

चुनता नहीं कांटें फिर भी ज़ख़्मी हूँ

जब भी कोई फूल पसंद आया
साथ में कांटो का ताज पाया
नब्ज में भरना चाहा मोहब्बत का रंग
तो भी हिस्से नफ़रत का सैलाब आया

ख़ामोशी से सहन किया हर ज़ख़्म ज़माने का
फिर भी बदनाम हुआ बुज़दिल के नाम से
सिखाने चला था दुनिया को, इंसानियत
खुद को हैवानियत सीखा, चला आया

मेरे कुछ है अपने, जो खंजर छुपाये बैठे है
मौका लगते ही सीने से गुजार देते है

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कड़वे शब्द बोलता हूँ