रविवार, 26 अप्रैल 2015

अंतर्मन में उलझ गया हूँ में

जो तस्वीर है तुम्हारी
बस गयी मेरी रूह में
कह सकता हूँ नहीं
रह सकता भी हूँ नहीं

अंतर्मन में उलझ गया हूँ में

तेरे नयन मुझ से अक्सर सवाल करते है
मेरे नयन है कि पलट कर कहने से डरते है
तू नैन मिला भी ले तो नजरें झुक जाती है
पल भर को तो साँसे आहें भर भर रह जाती है

अंतर्मन में उलझ गया हूँ में

शीशे सा दिल है मेरा, कैसे इसे चोर बनाऊ
कभी खुद से, तो कभी इस बैरी जग से छुपाऊ
रह रह उठती है लपटें, जो मेरे सीने में
कैसे, कब और क्यों में सब को दिखाऊ

अंतर्मन में उलझ गया हूँ में

दो घडी को मान भी जाए अगर दिल मेरा
जग की बातें, घायल कर जाती है इरादें
वो भी है कि, पल पल को शोलो सा बदलता है
अब इन अंगारो को सीने , कैसे में लगा लूँ

अंतर्मन में उलझ गया हूँ में

मेरा जिया है एक जो पल पल जलता सा है
उसका तो बस, हर वार मुझे छलता सा है
गवाही है मेरे दिल की, हर पन्ना देगा तुम्हें

अंतर्मन में उलझ गया हूँ में
अंतर्मन में उलझ गया हूँ में

# मैं कोई सितारा नहीं जो तुझे रोशन कर दूं
    उजड़े स तेरे इस दिल में, कैसे उम्मीदें भर दूं
   हो सजे तो समझ जाना, मेरी मजबूरियां
   मेरे दिल की नहीं, जालिम समाज की है ये दूरियां

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