इतनी समझता है गर दिल तुम्हारी बातें
कम्बखत मेरे दिल को भी समझाना
तुम से मिलने की जिद्द किये बैठा है
कसूर मेरा इतना
जिंद से ज्यादा चाहा तुझे
मकान बन कर रह गया घर मेरा
जब से रोटी परदेश में मिलने लगी है।।
इंसान का तो मुकद्दर है परेशानी
कभी दफ्तर तो कभी घर की कहानी
यूँ कातिल नजरो से क्यों देखते हो
किसे क़त्ल करने का इरादा है
जाता हूँ पर लौट आने का है वादा
पहले से बेहतर वक़्त लाने का है इरादा
जिसके दिल में भरा हो प्यार
उसके लिए उत्तम ये संसार
जिसके दिल में हो विकार
उसका जीना भी है बेकार
भूला में(इंसान) जीना , जीत की राह में
खो दिया अपनों को, पैसे की आह में
कहती है तू उड़ना सीख ले
पर मुझे पर क़तर जाने का डर सताता है
काश और विकाश के बीच पीस गया हूँ
नाम विकाश, काश बन रह गया हूँ
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