शनिवार, 24 जनवरी 2015

व्यवस्था का दुष्चक्र

दुसरो पर कीचड़ फैंकने वाले ये नहीं सोचते की उनके हाथ भी कीचड़ से सं चुके है
मगर उनको परवाह नहीं होती क्योंकि वो बुरी तरह से उस कीचड़ में धंस चुके होते है उनसे कोई सफेदपोश बर्दाश्त नहीं होता।। इसलिए वो अपने कुंठित मन का सारा कीचड़ उस सफेदपोश पर डालने की कोशिश में रहते है।। मगर वो सफेदपोश इतना संवेदनशील होता है कि दुखी मन से उस कीचड़ से बचने के रस्ते खोजता है।। क्योंकि उसका लक्ष्य एक स्वस्थ व्यवस्था में जीने का है।। कीचड़ में तो रहना कोई मुश्किल नहीं।। संघर्ष तो स्वच्छता के लिए करना पड़ता है।।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कड़वे शब्द बोलता हूँ