बुधवार, 21 जनवरी 2015

बेड़िया इस समाज की.....

बेड़िया इस समाज की
कुछ इस तरह से जकड़े है मुझे
ना जीने में हूँ ना मरने में

दिल कही और है मेरा
और दिमाग खींचे कही और
शायद इस पर भी है समाज का जोर

बेड़िया इस समाज की.....

वो चाहते बहुत है मुझे अक्सर आँखों से जाहिर करते है
मगर होंठ सिये हो किसी ने, शब्द बदल दिए हो किसी ने
इस तरह का मिजाज है हजूर का
शायद ये ही दस्तूर है समाज का

बेड़िया इस समाज की.....

उनको नहीं पता उनके कल और आज का
हर फैसले पर कब्ज़ा है समाज का
लेखा जोखा सब रखते है उनके काज का
मालूम नहीं हमे राज इस समाज का

बेड़िया इस समाज की.....

सिसकिया देखि है हम ने उनकी इस तरह
समाज ने ज़िन्दगी छिनी हो उनकी जिस तरह
दिल तो धड़कता है जुगनू की तरह
दिमाग को बांधे है जगत के अंधे कायदे

बेड़िया इस समाज की.....

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कड़वे शब्द बोलता हूँ