ज़िन्दगी मुस्करा दे जरा
तू है कि क्यों मुझे से खफा हो गयी है
तेरी इस कदर बेरुखी
मेरे लिए एक सजा हो गयी
लिपट उठती है ख्वाहिशे इस दिल में
तू है कि क्यों सिलवटों में खो जाती है
तू बाजूबंद सी हो गयी है
पहचान तो है मगर
मुनासिब नहीं
सुलगते जिस्म का ऐतबार नहीं
तू है की क्यों तपिश से घबराई हुयी है
मेने बेबस नजरों से जो देखा
तू है की क्यों शरमाई सी हुयी है
अरसे बाद मेरे अरमानों ने ली अंगड़ाई
तू है की छुईमुई सी खोई सी है
# लम्हें ना मेरी ज़िन्दगी के ज़हरीले बना
तू खुद के नूर से मेरे काँटों भरे जीवन को सज़ा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें