शनिवार, 30 मई 2015

दंगो का अभिशाप

कोई दर्द आज भी सीने में सुलग जाता है
दहक उठती है बुझे हुए शोलो में आग

कैसे दमन हुआ उन चिरागों का
जिनका रोशन होना था अभी बाक़ी

लूट गयी अस्मत उन दामनो की
जिनकी किलकारियां गूंजती आँगन में
उन घरो में सन्नाटा छा गया

जिन पनघटों पर लगते थे जमावड़े
आज कोई वहां लहू बहा गया
बरसो की बेपरवाह दोस्ती को
एक शक/अहम् का कीड़ा खा गया

भेद ना जाने था जो नन्हा जीवन
उसको भी ये खुनी भेड़िया खा गया
अपने स्वार्थ की खातिर
किसी घर का दीपक बुझा गया

लिपटी पड़ी शोलो में वो काया
जो कल लाल जोड़े में थी आई
महकना था जिसे अभी खलिहानों में
वो बूटी नोच कर है बलि चढाई

दंगो की ये आग ना किसी रोटी के काम आई
सिवाए बदन जलाने के और कुछु ना भलाई
बैर की ये बीज़ जो भी जग में बोता है
शायद वो अपने घर/ जग में इकलौता है

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