रविवार, 10 मई 2015

आवाज देता अँधा दिल

रूठ गयी जमीन मुझ से
खिसक गयी पैरो तले से

धँसता गया हूँ दर्द के कुंए में
ओझल हो गया हूँ तन्हाई के धुंए में

रात दिन कशमकश में डूबा है मन
मछली सा तड़पता है मोरा बदन

आंसुओ को भी इजाजत नहीं बहने को
दर्द ने मेरा दिल घरोंदा बनाया है रहने को

परस्पर मेल खाती नहीं, दिल और दिमाग की
जीत की खबर नहीं, हार हुयी मेरे विश्वास की

हो सके तो कुछ लिहाज रखना मेरे आखिरी श्वास की
तू करीब न आना, कहीं डोर बंध ना जाये टूटते सांस की

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मासूमियत भरे हसीं चेहरे पे मत पिघल जाना
शौक है इनका, दिल में आग लगा कर निकल जाना

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कड़वे शब्द बोलता हूँ