मालूम नहीं क्यों, पर
खंजर सा लगता है सीने में वो
हलचल मचता है जीने में वो
मासूमियत से हर बात कहता है
मेरे सारे शब्दों में वो रहता है
चीखता नहीं मुझ सा कभी वो
पर चोट बहुत करता है ख़ामोशी से
खंजर सा क्यों लगता है सीने में वो,
बहुत समझाया उसको भी और खुद को भी
फिर भी जाने क्यों पास आ जाता है वो
मौसम सा तो नहीं, बर्फ सा पिघल जाता है वो
खंजर सा क्यों लगता है सीने में वो,
कोई शरारत है उसकी, या मेरा दिल ही नादाँ है
उसकी कड़वी बातों में, मिठास ढूंढ लाता है दिल
वो तो हँसता रहता है, मेरी साँसों को होती है मुश्किल
खंजर सा क्यों लगता है सीने में वो,
अब चुप ना रहेगी, मेरी सिसकियां
उसको भी सताएगी, पतंगे की तरह
शमा सी जली हूँ में, नाजो से पली हूँ में
नख़रे उसके अब मुझ से सहे जाते नहीं
खंजर सा क्यों लगता है सीने में वो,
खबर करो उनको भी कोई
उनके सपने मुझे अब आते नहीं
वक़्त ही मिलता नहीं उनको भुलाने का
ख्याल उसके मेरे ज़हन से अब जाते नहीं
खंजर सा क्यों लगता है सीने में वो,
आप तो माहिर है, शब्दों के खेल के
कोई शब्दों का बाण, निकाल सीने से
मेरे सीने के घाव पर कोई मरहम लगाते नहीं
खंजर हो अगर तुम,
किस्सा मिटाते क्यों नहीं
एक वार में,
क्या रखा है रोज के नफरत और प्यार में
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