शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

दास्ताँ ए इश्क़

सामने बैठे है हजूर
थोड़ा नजरों से दूर
कुछ वो मजबूर
कुछ हम मजबूर

हल्की सी मीठी मुस्कान
साँसों से छुट्ती मेरी जान
नजरें जो मिल बैठे एक बार
उनके हो जाते हम पर एहसान

दिल से दिल की है पहचान
जानते हुए भी है अनजान
कानो में गूंजते उसके स्वर
मिश्री सा हुआ जाता हूँ मधुर

बरस बीत गए उनको निहारते
हम है की नजरों से नहीं उतारते
वो है कभी, अपना कह नहीं पुकारते
कभी तो एक लम्हा मेरे संग गुजार
बिलखती रूह का हो जाये उद्धार

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चोरी सीना जोरी का जो है ये खेल
इस से होता नहीं दो दिलो का मेल
उम्र भर की कसक सीने को रुलाती है
वक़्त बे वक़्त वो बहुत याद जो आती है

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