शनिवार, 25 जुलाई 2015

कलियों सा बढ़ चला था मेरा मन फूल बनने से पहले ही मुरझा गया

कलियों सा बढ़ चला था मेरा मन
फूल बनने से पहले ही मुरझा गया

सींचा तो बहुत मेने मोहब्बत के नीर से
ज़ालिम की नफ़रत थी ऐसी झुलसा गया
कलियों सा बढ़ चला था मेरा मन
फूल बनने से पहले ही मुरझा गया

मर्यादा रूपी बाढ़ से, बचाया था मेने इसको
वहम का तूफ़ान था जो मिनटों में सब ढह गया
कलियों सा बढ़ चला था मेरा मन
फूल बनने से पहले ही मुरझा गया

विश्वास भरी रिश्तों की डोर से उसको बाँधा था
चंचल मन था उसका, जो एक लम्हें में डोर छोड़ गया
कलियों सा बढ़ चला था मेरा मन
फूल बनने से पहले ही मुरझा गया

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अब पतझड़ के मौसम मुझको रास नहीं
क्योंकि बसंत आने की मुझको आस नहीं
हो सके कुछ सर्द लम्हें दें जाना
तपिश से अब कुछ पिघलने का विश्वास नहीं

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