कुछ इस तरह होता है पागल इंसान
जहाँ हो महफ़िलो का हर लम्हा शोर
वहां एक अकेला कुछ लम्हें होता है बोर
आज शनिवार का दिन, अवकाश का होता है
मगर विकाश है की दफ्तर में अकेला रोता है
सुबह 9 बजे आते ही धुल की फांके छँटाता है
कुछ लम्हें घुटन का आदि खुद को बनाता है
कभी नजर घूमता है, खिड़की पर तो कभी फ़ोन नजर आता है
कोई भूला आ भी गया दफ्तर
खुद की परेशानी मेरे सीने पे लाद चला जाता है
आज शनिवार को बस भरपूर वक़्त ही नजर आता है
आदेशो की बेड़ियों से जकड़ दिया एक कुर्सी पर
तन्हा वक़्त में कोई गैर भी अपना हो जाता है
हर राह चलता भी लुभा जाता है
मगर इस सुनी राह पर कोई नजर कहाँ आता है
प्यासे हो जाते है लब मेरे, कुँए पर जा सकता नहीं
भूख प्यास दम तोड़ जाती है सिर्फ गम छोड़ जाती है
आज तो इण्टरनेट और बिजली ने भी कमाल कर दिया
एक अच्छे खास इंसान का बुरा हाल कर दिया
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