शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

मुखोटों का समाज

हर तरफ नजर आते है अपने यहाँ
मगर कोई अहसास करा जाता पराये होने का
मासूम दिल को भी बहाना हो जाता रोने का

क्या बिगाड़ा था इस जग का
जो ये हाल किया मेरे खिलोने का
बहुत से देखे पराये अपनों के मुखोटों में
अब तो अपने भी पराये नजर आने लगे है
मुखोटे भी अपनी हंसी लगाने लगे है

जग भाया ना मझे रब्ब तेरा की मुझे जग का होना नहीं आया
बहुत मिला जग से ढूंढ ना सका अपना और पराया
मुखोटों के बीच रहकर खुद का चेहरा भी गंवाया

रोज एक मुखोटा नया नजर आता है
पुराने को झूठा जता खुद को नया बताता है
अगली रोज वो भी धोखेबाज़ कहलाता है

रिश्तों में भी घुल गया जहर मुखोटों का
छोटा बड़ा भाई बताते है
फिर पीठ पीछे खंजर चलाते है

चक्रव्यूह से भर गया
सादा जीवन भी संसार का
टुकड़ो में बाँट दिया है जो अब
हिस्सा ना मिला अपनों के प्यार का

कोई मेरा मुखोटा भी हटा दे
मुझे भी जग का हिस्सा बना दे
नही तो ना होने का मुखोटा ही लगा दे

2 टिप्‍पणियां:

  1. खुद को ही उठाना पड़ता है, थका टुटा बदन अपना... क्योंकी जब तक साँसे चलती है, "कन्धा" कोई नही देता।

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