शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

कहाँ ढूँढू सकूँ के दो पल

हर लम्हा
मुझे कचोटता है
रह रह कर
ज़ख्म कुरेदता है
कहाँ ढूँढू सकूँ के दो पल

मरता हूँ जिसके लिए
करता हूँ किसके लिए
फिर भी जलालत के
आंसू भर भर झरता हूँ
कहाँ ढूँढू सकूँ के दो पल

खुद की आग जब उठती
तपिश औरो को भी होती होगी
में तो जल ही जाता हूँ
झुलसता तो वो भी होगा
कहाँ ढूँढू सकूँ के दो पल

कोई मुझे सीने से उतार दे
या मेरा सीना खुद पे वार दे
थोड़ी तो ख़ुशी उधार दे
मुझे भी कोई प्यार दें
कहाँ ढूँढू सकूँ के दो पल

जब मुश्किल में हो कल
और सीने में हो हलचल

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कड़वे शब्द बोलता हूँ