सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

तमाशा

कुछ की जिंदगी भी एक तमाशा होती है। मेरा एक भाई नेता है पिछले दिनों में उसके पास गया था उसने मुझे कहा मेरे साथ चलोगे।
में असमंजस में फिर भी साथ चल ही दिया।
पहले हम एक मुहरत पर पहुंचे दूकान के और फिर किसी के मकान के।

यहाँ तक तो फिर भी ठीक रहा अब बारी आई किसी के अंतिम क्रिया में जाने की।
मुझे तो आश्चर्य हुआ की अभी तो हम किसी की खुशियों को बाँट रहे थे और अब गम।।
कैसे आखिर
चार पल पहले जब हम किसी के मुहरत में थे तो हमे ज्ञान था की हमे किसी की मौत पर भी जाना है। तो क्या ये सिर्फ रस्म अदायगी होती है।
जन्म हो या मृत्यु एक सामाजिक व्यक्ति को चेतना को ख़तम कर के सिर्फ जाने का ही फ़र्ज़ पूरा करना होता है ।
या वाक्य में वो इतना सहनशील हो जाता है की उसे सुख और दुःख में सामंजस्य बिठाना आ गया।
मुझे तो काफी अटपटा लगा शायद में यूँ जाता नहीं।
जो भी हो जीवन के ही रंग है ये।।

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