बुधवार, 24 दिसंबर 2014

रोके से ना रुकता नहीं वो मेरे

रोज उसको देख मन की आँखों पर पर्दा डालता हूँ
वो है की पर्दा उठा ताक झाँक कर जाता है
मेरा सर शर्म से झुक जाता है

रोके से रुकता नहीं वो मेरे
रोज एक इंच गहरा सीने में उतर जाता है
में तोड़ता हूँ रिश्ता गर
वो पलकों पर चिपक जाता है
रोके से रुकता नहीं वो मेरे रोज एक इंच ...

हंसी खुद कम करता है मेरे होंठो पर मुस्कान लता है
अपनी ख़ामोशी से भी सब कुछ कह जाता है
रोके से रुकता नहीं वो मेरे ......

मेने भी निकालने का किया जो इरादा
जखम में घर कर गया वो ज्यादा
में मरहम लगाता हूँ वो कुरेद जाता है
रोके से रुकता नहीं वो मेरे ....

आज भी कुछ लम्हे संग उसने है बिताए
मेरे जज़बातों के दिए फिर से जगमगाए
में मासूम सा मीठे बोलो से घिरता गया
वो हर एक शब्द पहले से मीठा करता गया
रोके से रुकता नहीं वो मेरे...

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मुझ नासाज पर इतना अहसान कर
खंजर को सीने से निकाल ना सके तू अगर
सीने को निकाल मेरे
खुद का सीना मेरे नाम कर#

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कड़वे शब्द बोलता हूँ