मंगलवार, 22 मार्च 2016

मैं औरत हूँ

काँच की तरह रोज टूट जाती हूँ
अपने ही वजूद से पीछे छूट जाती हूँ

हर दिन नया ज़ख्म, मेरे जिस्म पर उकेर देता है
अपनी हवस और क्रोध से, मेरी रूह हर लेता है

बेबसी का ये मंजर, दशको से मेने ही झेला है
खुशियो को जब भी चाहा, पीछे ही धकेला है

बर्बरता का आलम तो देखो उस वहशी का
नफ़रत भी हमसे, और मोहब्बत का तकाजा भी

अस्तित्व की लड़ाई मैं हार गई मैं लड़ते लड़ते
नोच गया मेरा जिस्म वो, बेजान मानकर

मेरी रूह  को तार तार कर गया, जबरदस्ती मोहब्बत से
कौन सा सकूँ मिल गया उसे, मेरी बंजर सी धरती से

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कड़वे शब्द बोलता हूँ