मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

ज़िन्दगी

मिल गया मुकद्दर
कि ज़िन्दगी उड़ने लगी

काँटों सी झूलती
मखमल पर चलने लगी

बरसो से तपती हुई अँखिया
आज झील सा शांत हो गई

रोज रोज की तंग थी खुशिया
आज खुलकर मेरी ही हो गई

सदियो से कटती ना थी जो रतिया
आज खुले आँगन में ही सो गई

लगता तो है आखिर
मेरी ज़िन्दगी मेरी हो गई

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कड़वे शब्द बोलता हूँ