मिल गया मुकद्दर
कि ज़िन्दगी उड़ने लगी
काँटों सी झूलती
मखमल पर चलने लगी
बरसो से तपती हुई अँखिया
आज झील सा शांत हो गई
रोज रोज की तंग थी खुशिया
आज खुलकर मेरी ही हो गई
सदियो से कटती ना थी जो रतिया
आज खुले आँगन में ही सो गई
लगता तो है आखिर
मेरी ज़िन्दगी मेरी हो गई
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