शनिवार, 16 जनवरी 2016

वक़्त बे वक़्त ये आंधिया आशियाँ हिला जाती है

जब भी कदम बढ़ाये थे की
कुछ तिनके मिलाये थे की
वक़्त बे वक़्त ये आंधिया आशियाँ हिला जाती है

होश की बात नहीं थी ये दोस्तों
वक़्त की गर्दिश ले डूबती है हमें
लोग तो ताश के पत्तो से महल बना देते है
एक हमारा है कि
वक़्त बे वक़्त ये आंधिया आशियाँ हिला जाती है

कोई ख्वाहिश नहीं रखता हूँ चाहने वालो से
बस उनकी ख्वाहिशो में मिटा चला जाता हूँ
रौशनी हुयी थी ना कि रोशन दानो में
वक़्त बे वक़्त ये आंधिया आशियाँ हिला जाती है

लकीरें बनाना आसाँ है ए दुनिया वालो
चार गज की ज़मीं में दफ़न हो जाऊंगा
फिर ढूंढते रहना कि कोई शख्स भी था
तिनकों से महल बनाने वाला, जिसका
वक़्त बे वक़्त ये आंधिया आशियाँ हिला जाती है

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होंसला दे मेरे मौला मगरूर आंधियो से लड़ने का
यूँ गिर गिर कर सम्भलने का, मौकापरस्त ज़माने से
ख़ुद के खंजर भी रस्में ए कायनात जताते है
मेरे मखौल को भी, वासना के भूत बताते है
फिर क्यों जाने लौट मेरा आशियाँ निशाना बनाते है

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