सन्त एक शब्द अगर आप किसी के लिए प्रयोग करते है तो अनायास एक सम्मान की भावना उमड़ पड़ती है परंतु समय के साथ भ्रांतियां जुड़ने लगी और हमने ऋषि, धर्मगुरुओं, समाजसेवियों व अन्य गणमान्य पुजारी इत्यादि लोगो को सन्त कहना शुरू कर दिया। उसका वास्तविक कारण आधुनिकता के दौर में असली संतों का न मिलना है।
सन्त है क्या?
वो मनुष्य जो ग्रहस्थ जीवन को त्याग , गृहस्थी में लीन लोगों के कल्याण के लिए निकल पड़ता है। नही समझें? कुछ आधुनिक युग के हिसाब से कहुँ तो वो अनुभवी व्यक्ति जो मनोदशाओं और परिस्थितियों के
ज्ञान से पारंगत , सामान्य व्यक्तियों को उनके समाधान या कल्याण के लिए अपने ज्ञान का संचार करता है। उनका मकसद कभी एक स्थान पर रहकर डेरा जमाना नहीं होता था वो निरंतर ज्ञान के प्रकाश से रोशन करते हुए आगे बढ़ जाते थे, उन्हें किसी समस्या या तकलीफ़ का ज्ञान होता था क्योंकि भ्रमण से से उनके ज्ञानकोष में निरंतर वृद्धि होती रहती थी, भावनाओं पर नियंत्रण कर वो एक मशीन की भांति कार्य करते थे ,
उदाहरण के तौर पर किसी की मृत्यु हो जाती है तो हम काफी विलाप करते है परंतु हमारे जानकर व रिश्तेदार हमे सांत्वना देते है कि प्रकृति का नियम है, क्योंकि वो भली भाँति परिचित कि किसी के जाने से कभी संसार नहीं रुकता। ठीक वैसे सन्त इन भावनाओं को दूसरे के माध्यम से साध कर स्वयं को इतना परिपक्व बना लेता है कि दुख और सुख के समय मनुष्य कुछ पल को अधीर हो जाता है, सन्त जानता है कि जब उसके मानसिक पटल से वह आघात पहुँचाने वाली बात वक़्त के साथ धूमिल हो जाएगी तो फिर वह मुख्यधारा में लौट आएगा, इसलिए वह उस वक़्त संजीवनी की भांति अन्य उदाहरणों से, युक्तियों से उसका समाधान कर देता है। मेरी नजर में दो महापुरुष है जिनको मेने जाना है एक बाबा नानक और दूसरा गौतम बुद्ध , जिन्होंने सन्त शब्द को पूर्ण रूप से परिभाषित किया है। हालांकि मेरे ज्ञान से बाहर अन्य भी काफी सन्त हुए है।
आप कहेंगे कष्ट निवारण तो डॉक्टर भी करता है तो वह भी एक सन्त हुआ, एक वकील भी कानूनी समस्याओं से बाहर निकालता है वो भी सन्त हुआ, एक शिक्षक भी अज्ञानता के अंधेरे से ज्ञान के प्रकाश में ले आता है तो वह भी सन्त हुआ, पर मैं खंडन करता हूँ क्योंकि सन्त सांसारिक सुखों के लिए कार्य नही करता कि आपके गृहस्थ समस्याओं या जीवन यापन के लिए कुछ समाधान करेगा, उसका कार्य आपको आध्यात्मिक रूप से समग्र बनाना होता है वह चंचल मन को बांधने की प्रक्रिया पर बल देता है, वह यह फर्क समझाता है कि डॉक्टर कहता है ये दवा लो आपका रोग ठीक हो जाएगा, सन्त कहते है ये नियम अपनाओ रोग ही नही आएगा। वकील कहता है भाई से जायदाद किस तरह से हासिल होगी, सन्त कहता है कि भाई को हासिल करलो जायदाद का मोह ही छूट जाएगा, शिक्षक कहता है इस ज्ञान को प्राप्त करने से , तुम सांसारिक सुखों को प्राप्त कर सकते हो जबकि वो नही कहता उन सुखों के साथ दुख भी साथ आते है, दुख भी एक प्रक्रिया है और सुख भी लेकिन सन्त इन दोनों परिक्रियाओं में स्थिर रहने का भाव सिखाता है, सन्त हिंसक समाज को अहिंसा का मूल्य सिखाता है। सन्त समाज को व्यर्थ के तनाव से दूर रहने का मार्ग दिखाता है, सन्त को क्रोध नही आता वो मुस्कराने की कला में पारंगत होता है उसे आभास होता है कि क्रोध के पल मिटने पर, मनुष्य को जो पश्चाताप अनुभव होगा वह इस क्रोध से भी भयावह है जब वह स्वयं ग्लानि के भाव से गुज़रेगा। सन्त जीवन को संजीवनी देता है , बस कोई सन्त आपको मिल जाये तो आपका जीवन भी महक उठेगा।
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