रविवार, 9 अक्तूबर 2016

स्वार्थी मानव मन

जीवन जीना सृष्टि की महत्वपूर्ण व् प्राथमिक कला है। जीने को सभी जीवन जी रहे है, पर मैने इतना महसूस किया कि अक्सर हम अपनी इच्छाओँ की पूर्ति ना होने पर इतने क्रोधित अथार्थ स्वयं में समाहित हो जाते है। निज हित के चलते हम विवेकहीन हो जाते है। जीवन के रस में क्रोध व् कुंठा रूपी जहर घोल देते है। ऐसे वक़्त पर समान्यता यह भी देखा गया है कि हम समाज से अलग पड़ जाते है। इस समय से गुजरना पीड़ादायक होता है एक तो आपको इच्छाओं की पूरा ना होने की पीड़ा ऊपर से समाज का आप के प्रति रवैया, इन सबसे निकलने का एकमात्र उपाय चिंतन है जोकि विभिन्न पहलुओं पर होना चाहिए क्योंकि निज हित में तो हम चिन्तन कर ही रहे थे पर हम ने उन पहलुओं पर विचार नहीं किया जो अन्य के हितों से जुड़े थे।
उदाहरणतयः एक बालक जिद्द करता है तो उसकी समझ केवल उस जिद्द को पूरा करने के सिवा उस से होने वाले परिणामो पर नहीं होती। वो चिंगारी की तरफ भी आकर्षित हो उसे पकड़ने की कोशिश करेगा और उसे उस पीड़ा को अनुभव नहीं होता जो चिंगारी उसे दे सकती है।
ख़ुद के जीवन को हम बिना समाज के प्रभाव नहीं जी सकते क्योंकि उत्तपत्ति का आधार समाज है। वैसे जीवन में कभी गौर किया कि हम जहाँ भी चले जाए नई जगह हम दोस्त क्यों बना लेते है। गौर कीजिए और चिंतन जीवन का सार्थक मन्त्र मिल जायेगा।।

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