शनिवार, 27 अगस्त 2016

रिश्तों की गुलामी या आजादी

महत्वकांशी होता है मनुष्य बढ़ा जब उसे अपनी इच्छाओं  की पूर्ति होते दिखाई नहीं देती तो उसे रिश्तों में घुटन अथार्थ आजादी का सवाल खड़ा हो जाता है उसके जहन में

मेरी भी ज़िन्दगी है जैसे कई सवाल उसे जकड लेते है। इस क्रिया को दोहराते हुए वो पुराने रिश्तों जिन्हें गुलामी समझ बैठता है उन्हें छोड़ फिर नए रिश्तों की गुलामी में चला जाता है। वो ये भूल कर बैठता है कि रिश्ता गुलामी नहीं उसकी जरुरत है। क्योंकि मानव अकेले रह नहीं सकता कुदरत ने उसकी सरंचना इस तरह की बनाई की उसे दूसरे मानव के बिना रहना असंभव है बेशक वो रिश्ता माँ बाप । भाई बहन। पति पत्नी। अथवा कोई दोस्त हो। दुसरो से हम जो अपेक्षा करते है वो ही गलतिया खुद के जीवन में दोहरा लेते है। मनुष्य के मन की अवस्था बहुत ही अधिक चंचल होती है वो ना चाहते हुए भी उन राहों को चुनता है जिन्हें उसका मस्तिष्क तो जवाब दे रहा होता है पर चंचल मन ले जाता है। फिर जब दोष की बात आती है तो मन पल्ला झाड़ मस्तिष्क के ऊपर ठीकरा फूट जाता है। क्या तुम्हें समझ नही थे जैसे सवाल उसकी बौद्धिक क्षमता को सवालिया निशान लगा दिए जाते है।
हम गुलाम इस शरीर और चंचल मन के है ये मन कभी भी हमारी इंद्रियों को नियंत्रित कर सकता है। वास्तविकता को जानते हुए भी अवास्तविक संसार की कल्पना कर जीना चाहता है।
उदारहणतय देश आजाद हुआ 1947 में अंग्रेजो से तो आज यहाँ के लोगो को खुद के सविंधान से गुलामी नजर आने लगी कभी आरक्षण की आग तो कभी गरीबी की आग गुलाम होने का एहसास दिला जाती है। न्याय न मिलने पर कहीं आपराधिक बोध से त्रस्त विचारो की लहर आंदोलन बन जाती है। मेरे कहने का सिर्फ इतना मतलब है कि विसंगतिया हर ढांचे में होती है। बशर्ते दूर जाने की हमें उन विसंगतियों से जूझने की कोशिश करनी चाहिए।

#मैंने ईश्वर से भी आजतक ये ही माँगा

हे ईश्वर मुझे सद्बुद्धि दीजिये अन्य किसी भी वस्तु का लोभ निरर्थक है।।

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