बुधवार, 27 अप्रैल 2016

उसूलों की भेंट

बचपन की सीख
कि ज़िन्दगी उसूलों पे चलती है
मेने भी कुछ बनाये थे

पर जब किताबों से बाहर
व्यावहारिक दुनिया आये थे
उसूलों ने कुछ यूँ थपेड़े खाये थे

वो ही लूटेरे निकलेे जिसने कायदे बनाये थे
खुद की सीख के चीथड़े करते हुए ना शरमाये
मेरे उसूल झूठी शान की भेंट चढ़ाये थे

अब कैसे बदलता खुद को
बचपन में घोट कर पिलाये थे
उनकी आदत थी बदल जाने की
हमने तो एक जीवन के उसूल बनाये थे

ज़मीर से जुड़ा था मेरा हर उसूल
फिर समाज के कुछ कायदे कबूल
ये ही थी जीवन की सबसे बड़ी भूल

हर किसी ने उसूलों के कतरे बहाए है
किसी ने लहू पिया किसी ने टुकड़े चबाये है
फिर क्यों मेने उसूलो के ख़ातिर
ज़िन्दगी के हसीन पल गंवाए है

उसूलो की भेंट मैने सुखद पल खो दिए
दुनिया से लड़ते लड़ते होंसले भी रो दिए

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कड़वे शब्द बोलता हूँ