एक हफ्ता हो गया घुटते घुटते पर किस से कहें ये समझ नही आ रहा, ऐसा लग रहा है कि जैसे सारी दुनियाँ ही मेरे खिलाफ हो गई है, शायद इसलिए लग रहा है जिस दफ्तर में 6 साल से बिना उफ्फ तक किए जिन लोगों के लिए काम किया वो आज विरोध में आ खड़े हुए है उन्हें निज स्वार्थ में अच्छे बुरे का फर्क नजर नही आ रहा, मेने जब जॉइन किया था तब से लेकर आजतक अपने इंचार्ज की कभी किसी बात से मना नही किया, यहाँ तक वो सारा काम मुझ पर छोड़ अपनी पार्टियों में मशरूफ़ रहते और आज उन्हें मुझ में खामियाँ नजर आ रही वो भी सिर्फ उनकी किसी खास कर्मचारी की परेशानियों की वजह से, अब अधिकारी कोई फैसला लें, ये उनका अधिकार है मगर स्थायी कर्मचारियों को वक़्त के साथ इतना घमंड हो जाता है कि वो स्कीम और उनमें लगे अनुबंध कर्मचारियों को अपनी जायदाद समझने लगते है, मेरी खामी यह कि मैने किसी को पलट कर जवाब देना नही सीखा, अकेले घुटता रहता हूँ।
बात नई नही है पिछले अधिकारियों के समय भी दो बार ऐसा हो चुका है कोई भी जिम्मेदारी भरे कार्य आते है तो काम के लिए सबसे आगे कर देते है जब अपनी सूझबूझ से उस कार्य में सफलता मिलने पर अधिकारी का प्रोत्साहन मिलता है तो सबके सीने पर साँप लौटने लगे जाते है, चुनाव के दौरान ऐसा कोई कार्य नही जो न किया हो एक ऑपरेटर, ड्राइवर, स्टेनों व अन्य कई कार्य जो शायद मेरी क्षमताओं से परे थे पर मैने माथे पर शिकन आए बिना सब बखूबी निभाने की कोशिश की, लेकिन उस दौरान भी बरसो से काम कर रहे मेरे सहकर्मियों ने भी एक प्रतिशत सहयोग नही दिया, उनसे अधिकारी के कहने पर कोई रिपोर्ट मांगने चला जाता तो उनके क्रोधाग्नि से अपमान के घूंट पीते हुए भी चुनाव का कार्य पूर्ण करवाया। हालांकि मैं ऐसी कड़ी नही था कि मेरे बिना चुनाव में कोई फर्क पड़ता क्योंकि अधिकारी द्वारा होमवर्क इतना बेहतर था कि वो सब सामंजस्य बिठा लेते, चलो किसी तरीके से चुनाव तो निबट गया लेकिन उसके बाद एक मीटिंग के दौरान अधिकारी द्वारा तारीफ किये जाने से सभी के मुँह और मुझ से चिढ़ गए, इस दौरान तो वो भी लोग चिढ़ गए जो सहकर्मी के साथ दोस्त होने का भी दावे कर रहे थे, सब भुला दिया यह सोचकर कि चलो इंचार्ज और अधिकारी के मापदंडों/आशाओं पर तो खरा उतरा हूँ मुझे कार्य करने में खुशी मिलती है और उसकी पहचान हो जाए तो खुशी दुगनी हो जाती है। लेकिन पिछले सप्ताह कमर में अचानक दर्द हो गया तो इंचार्ज के पास छुट्टी भिजवाई तो उसने साफ मना कर दिया यह कहकर कि इसका तो रोज का काम है मैं नही मंजूर करता सीधे अधिकारी से करवा लें, अब ये बात कमर दर्द से भी ज्यादा दर्द दे रही थी, यार जिस व्यक्ति के एक इशारे पर दिन रात काम किया, कभी यह नही सोचा कि काम मेरा है या नहीं, आज उसने यह बात कह दी। किसी भी तरह एक दिन की छुट्टी काटने के बाद, दफ्तर आ गया, अभी भी कमर से सीधा खड़े होकर चला नही जा रहा था तो एक और नया खंजर सीने में चला दिया, अधिकारी द्वारा छुट्टी वाले दिन इंचार्ज के खास कर्मचारी को एक अन्य कार्य की जिम्मेदारी दी दी गई और शायद इंचार्ज की अधिकारी से इस बारे बहस भी हो गई हो लेकिन वो सारा गुस्सा कमरे में आकर मुझ पर और एक सहायक अकाउंटेंट पर उतार दिया। और रोज छोटी छोटी बातों पर तानों जैसा व्यवहार करने लगे। जैसे कि मैं कोई बड़ा ही गुनाह कर आया हूँ, जब इतनी परेशानी होती है इनको फिर अधिकारी के सामने मत भेजे, इनको आराम भी चाहिए और फिर सम्मान भी और शायद और कुछ भी जो उन्हें अधिकारी विश्वास में न होने के कारण मिल नही पाता। मन यो करता है छोड़ दूँ नौकरी पर सामाजिक ढांचा ऐसा है कि परिवार की सुख सुविधाओं के लिए काम तो करना पड़ता है, और समस्याएं तो सब जगह है पर मेरा शायद रिएक्ट करना कुछ ज्यादा हो, पर घुटन को दूर करने के लिए लिखना भी जरूरी था।
बल्कि दफ्तर में चल रही समस्याओं के कुछ समाधान भी थे मेरे मन में, मेने तो इस डर से अधिकारी से एक भी सुझाव शेयर नही किया कि कल को मेरे पीछे और पड़ जाएंगे कि जो हो रहा है सब मेरी मर्जी से हो रहा है। कभी कभी इनकी विकृत मानसिकता पर हंसी भी आती है।
बस ईश्वर से यह ही प्रार्थना करता हूँ मेरी सहनशक्ति को बरकरार रखें ताकि कभी किसी से मैं दुर्व्यवहार न करूं क्योंकि जब क्रोध के पल चले जाते है तब इंसान को ज्यादा पछतावा होता है। कोशिश करूँगा कि लिखने के पश्चात कल स्वच्छ मन से अच्छा कार्य कर सकूँ क्योंकि अशांत मन से सब गलत ही होता है।
Sochta hoon ki har pal likhoon par likhne baithta hoon to wo pal hi gujar jata hai
गुरुवार, 27 जून 2019
तमाशबीन ज़िन्दगी
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