शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

दोस्ती का पोस्टमॉर्टम।

वक़्त की समझ थी, कि फिल्मों का असर, या कमज़ोर दिल, मुझे नही पता मग़र बचपन से मेरी एक टैगलाइन होती थी
देश
दोस्ती
फिर दुनियां

मेरे लिए अपना परिवार इत्यादि भी दुनियां में आते थे पर  देश और दोस्ती सर्वोपरि थी । जिस कड़ी में 1997 में मैने गांव के सरकारी स्कूल में नोवीं कक्षा में दाखिला लिया था तो गांव का एक लड़का मेरा दोस्त बना, दोस्ती का आलम देखिए पूरा गांव हमारी दोस्ती की बात करता था। स्कूल में तो हम सारा दिन साथ होते थे शाम को भी हम नहर किनारे वक़्त बिताते थे। 2001 में मैने उसकी खातिर सरकारी कॉलेज में नंबर पढ़ने के बावजूद , उसके नंबर कम होने के कारण अन्य निम्न दर्जे के कॉलेज में दाखिला लिया। उसकी समस्या उस से पहले मुझ से होकर गुजरती थी। मैं अपनी पॉकेट मनी को भी स्वयं पर खर्च न करके उसकी जरूरतों में खर्च कर देता था। वर्ष 2002 में उसने कॉलेज छोड़ दिया तो मैने भी कॉलेज छोड़ दिया। उसने तो प्राइवेट दवाइयों की कंपनी में नौकरी शुरू कर दी तो मैं भी दिल्ली कोर्स करने चला गया। अब हमारा मिलना सिर्फ एक या दो महीने में हो पाता था पर दोस्ती में कहीं कमी न थी। वर्ष 2003 में जब मेरा कंप्यूटर कोर्स खत्म हुआ तो मैने करनाल कैफ़े में नौकरी कर ली। उस दोस्त में गरीबी देखने के कारण पैसे कमाने की भूख थी। मुझे भी लगता था कि जरूरतों के कारण उसे सही लगता है। मेरा ऐसा हाल था उसके काम कहीं भी जाना हो उसकी एक आवाज पर मैं चला जाता था। उसने बहुत जगह इंटरव्यू दिए, वो पिछली कंपनियों की बढ़ी सैलरी स्लिप बनवाता था और आगे बढ़ता गया, वर्ष 2010 में मेरा तो वेतन 4500 था और उसका 20000 के आसपास फिर भी मेने अपनी पल्सर बाइक उसे दे दी और उसकी स्प्लेंडर ले ली। उस वक़्त तक मेरे दिमाग में उसके लिए कभी तेरा या मेरा न था।

अब वक्त आया वर्ष 2011 जब मैने 1 मई मजदूर दिवस को त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद का समय मेरे जीवन में अमूल्य परिवर्तन लेकर आया, जब बेकारी के समय घर वालों ने भी ताने मारने शुरू किए। भगवान में अत्यंत विश्वास रखने वाले को जब उसके दरवाजों से भी न उम्मीदी मिली तो मन के द्वार बंद होने लगे और मस्तिष्क के द्वार खुलने लगे। पता चल गया कि ये संसार चलता तो दिमाग से है, दिल वाले तो बेवकूफ बनाने के लिए होते है उनके सहारे तो मस्तिष्क वाले आगे बढ़ते है। घर और भगवान तो 2011 में ही मन से निष्काषित हो गए। अब बारी थी दोस्त की, कुछ आवारा लगा लीजिये, या मेरी तरह बेकार दोस्त जिनके साथ मैं घूमने लग गया। तब मैंने उस दोस्त को काफी बार फ़ोन किया तो वो दरकिनार सा करने लग गया, मैने सोचा शायद मेरे नए दोस्त पसंद नही इसलिए करता होगा। पर यहां से नींव पड़ चुकी थी दोस्ती में खटास की वर्ष 2015 तक इस दोस्ती में छोटी छोटी बातों से बड़ी दरारें आने लगी, अब बारी मेरे दरकिनार करने की थी। उसकी हर खुशियों पर जब हम मनाने की बात करते तो वो बहाने से बनाने लग जाता था। जो बाकी के सहपाठी
थे वो मुझे ताने देते ये है तेरा परम् मित्र फिर वो भी जब लालच से भरी बातें करने लग गया तो मेरा मन समझने लगा की शायद कुछ ठीक नही। और वर्ष अप्रैल 2016 में मैने अपनी तरफ़ से उस से रिश्ता तोड़ दिया और आज मेरा कोई दोस्त नही, और न बनाने का दिल है। जानकार तो होते है पर परम् मित्र नहीं होते सब, और उम्मीद है आगे बनाऊ भी नहीं।

मगर शायद किसी कोने में अब भी मन जिंदा था, मस्तिष्क पर मन भारी था।

....आगे की कहानी फिर कभी

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