शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

बैसाखियों पर ज़िन्दगी

आसाँ नहीं होती
बैसाखियों पर ज़िन्दगी

मोहताज हो जाती है जिंद सहारे को
ढूंढ़ नहीं सकता किसी किनारे को

आसाँ नहीं होती
बैसाखियों पर ज़िन्दगी

लाचारी के आलम में अपने भी रूठ जाते है
दूसरों का बोझ उठाते वक़्त रिश्ते भी टूट जाते है

आसाँ नहीं होती
बैसाखियों पर ज़िन्दगी

दया की नजरें चुभती है इन आँखों को
वक़्त तोड़ नहीं सकता बेबसी की सलाखों को

आसाँ नहीं होती
बैसाखियों पर ज़िन्दगी
आसाँ नहीं होती
बैसाखियों पर ज़िन्दगी

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मुझे भी बिन बैसाखी जीने की चाहत है
ये ही उम्मीद जीवन में एक राहत है

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कड़वे शब्द बोलता हूँ