हम में से ज्यादातर व्यक्ति पारिवारिक अथवा सामाजिक रिश्तों में असमंजस की स्थिति में रहते है, हमें मालूम नही होता कि हमारा कौन सा रास्ता सही है कौन सा गलत? इस कमोबेश में हम अक्सर उन लोगों से सलाह की अपेक्षा रखते है जिनको हम अपना शुभचिंतक या सुलझा हुआ व्यक्तित्व समझते है। जबकि ज्यादातर इन बातों में हम किसी दूसरे की सोच या समझ अपने जीवन में थोप लेते है।
उदारहण के तौर पर एक कुँवारा व्यक्ति जब किसी शादीशुदा से सलाह लेता है तो शादीशुदा आदमी उसकों अपने अनुभव बताने की बजाए जो कुंठा उसके जीवन में अथार्त जो खामी राह जाती है उन्हें उसके माध्यम से पूरा करवाना सुनिश्चित करें। वो कहेगा शादी का कोई फायदा नहीं शादी नरक होती है अकेले जीवन व्यतित करो, जबकि वो शादीशुदा जीवन के वो भावनात्मक पहलू बताना भूल जाता है या नजरअंदाज करता है जोकि अक्सर सभी महसूस करते है। शादी की वो रस्मे पहली बार हल्दी लगना, सभी रिश्तेदारों के केंद्र बिंदु बन खास अनुभव करना, जीवन में एक बार उम्मीद से बेहतर वस्त्रों को पहनना, घर में उसका एक अलग महत्व बढ़ जाना, नए रिश्तों का अपनापन इत्यादि बहुत से लम्हें वो नही बताता क्योंकि खुशियाँ हम जल्दी भूल जाते है और गमों का शरीर में घर बना देते है। विचारों के इस मंथन में हमेशा कोशिश करता हूँ अच्छे बुरे हर पहलू पर विचार करूँ। मेरी नजर में रिशतें बहुत मायने रखते है, लेकिन समाज कहता है कि रिश्तों में कुछ छिपा नही होना चाहिए जबकि मुझे लगता है हर व्यक्ति की निजता का स्थान होना आवश्यक है। पति पत्नि पर व पत्नि पति पर गिध्द की तरह नजर जमाते है और इस व्यवहार का परिणाम हमेशा उल्टा आता है, किसी एक को लगता है कि मेरे इतने त्याग के बावजूद मुझ पर भरोसा नहीं और वो वही गलती दोहराएगा, जबकि भरोसे की सूरत में किसी एक को लगेगा कि अपनी भावनाओं को नियंत्रण कर मुझे अपने हमसफ़र के भरोसे को कायम रखना है।
शेष फिर कभी अभी काम है कुछ.....
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