देखने का नजरिया भी आवश्यक है हो सकता है आप मुझ से बेहतर नज़रिया रखते है मगर इस घटना पर अलग संदर्भ है उसके पीछे की वजह बचपन से जो देखा वह है, न कि चंद दिनों की सियासत।
बचपन में मेरी जाति के ही इस मोहल्ले के लोग, दूसरे मोहल्ले के लोगों से भीड़ जाते थे, उनकी लड़ाई की वजह जब जाने तो सबको हंसी आती थी कि किसी एक ने किसी दूसरे के हुलिए पर या बेवकूफी पर तंज कसा दिया और उसे मोहल्ले की इज्जत से जोड़ दिया। ये सफर खत्म न हुआ उम्र के साथ बढ़ता गया।
अब कॉलेज पहुँचे, तो शहर 20 किलोमीटर था तो आसपास के 5 गांव के सभी बच्चे एक ही बस में जाते थे, मेरे गाँव से पहले के बच्चों को मासूमियत की वजह से, गाँव के बच्चे पागल/बोले/मेसे इत्यादि शब्दो से चिढ़ाते थे, अब सभी तो एक समान नहीं थे, तो एक दिन किसी उग्र बालक को कह दिया तो हो गया झगड़ा कि इसने मेरे पूरे गाँव को पागल कहा।
इसी क्रम में जाति, जमात, रंग इत्यादि भेद के कारण समाज में बरसो से होते आ रहे है, और समाज के जिम्मेदार व्यक्ति का कर्तव्य होता है कि वह इन झगड़ों को चिंगारी की तरह भड़काने का इस्तेमाल न करें।
उसी गाँव में और भी हिन्दू और मुस्लिम रहते होंगे, उनमें से बहुत से लोगों के आपस में प्रेम भाव होंगे, इन भड़कीली हवाओं से उनका भी सौहार्द बिगड़ता है।
मेरी उम्र और अनुभव के हिसाब से तो इस घटना की यही प्रतिक्रिया है बाकी आप विद्वान है।
Sochta hoon ki har pal likhoon par likhne baithta hoon to wo pal hi gujar jata hai
रविवार, 24 मार्च 2019
सामाजिक मनभेद/मतभेद
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