बुधवार, 14 जनवरी 2015

ओह रब्बा यूँ ना शैतान बना

मांगता हूँ हर सांस में सदबुद्धि तुझ से ओह रब्बा
यूँ ना मुझ को शैतान बना

ह्रदय को बेध जाते कठोर शब्द ज़माने के
मुझ को भी ना ऐसा कठोर बना

में तो जीवन में बसना चाहता हूँ
यूँ ना मुझको शैतान बना

ख़ामोशी लूट लेती खुशिया सबकी
मुझको ऐसा ना खामोश बना ओह रब्बा
यूँ ना मुझ को शैतान बना

दर्द उनको भी होता है जो दर्द देता है
उनके दर्द से ना अन्जान बना ओह रब्बा
यूँ ना मुझको शैतान बना।।

2 टिप्‍पणियां:

  1. इतनी ठोकरे देने के लिए शुक्रिया, ए-ज़िन्दगी.. चलने का न सही,,, सम्भलने का हुनर तो आ गया.

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  2. शुक्र है किसी को तो सम्भलना आया
    हम तो आज भी लड़खड़ा जाते है

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कड़वे शब्द बोलता हूँ