शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

अंतर्मन की आवाज़ें

इन्तजार था मुझे तेरे आने का , तेरे आने और मेरी पीठ थप थपाने का , हो सके तो दो चार दिन के लिए रुक जाना
मुझे सहलाना मेरी अंतर्मन में विश्वास जगाना, कांपते हुए मेरे मन को शीतलता का दान  करना. मेरे बुरे की तरफ बड़ते कदमो को विराम देना, मुझे उन पलो का एहसास देना जिनकी अहमियत में भूल चूका हूँ.

उन आहटो की आवाज सुनाने की शक्ति देना जो गलती करने से पहले हर इंसान को याद दिलाती है उसके हाथो होने वाली गलती के परिणाम , हो सके तो वो प्रसाद  भी दे देना जो मेरे क्रोध को खा जाये और मेरे अंतर्मन में झील के पानी सा समा जाये

अपमान का घूँट पीकर में जमीरहिन  न हो जाओ ऐसा कोई जंतर देना, हर कदम पर कुंठा से भरी दुनिया ताने कसती है उन तानो से लड़ने का जंतर मुझे थमा जाना ताकि न लग सके मुझ पर कोई ताने का निशाना.

इतना भी बेगैरत न बनाना की मेरे मन से गैरत भी मिट जाये किसी की हंसी न समझो और न किसी का दुःख समझ आये. सुलगती लाशो पर भी मेरा दिल द्रवित न हो पाए.


हर कोई चाहे भूले इंसानियत का पाठ पर मुझे तुम न भूलने देना , मेरे हर अक्स को तुम मिटने से पहले दुनिया के हर दर्द को सुनाने देना. दर्द में जो काम आये ऐसा इंसान बना की तेरी नजरो से न नयन चुराओ ऐसा इंसान बना.

काश होता मेरे पास भी तेरे जैसा दिव्या रूप में भी जग को सुंदर बनाने में लग जाता हर दर्द को समेट खुशिया देने लग जाता, पर तुने सब को एक सी नेमत नहीं दी, मुझ को मेरी नेमत का एहसास करना , और इन ज़माने से साथ चलने का गुर बताना.

कटी हो जिस पल मेरी साँसे दुःख में उन पलो को हमेशा याद करना, ख़ुशी के पल चाहे भूल जाओ पर किसी गम को दिल से न हटाना वो गम ही तो है जो औरो की तकलीफ का एहसास दिलाते है वरना खुशिया तो सब के गमो आग लगाती है. एक घर में दिया और एक घर में " घर " ही जलती है'

जलने से याद आया दीपो का त्यौहार आया है हर कोई नए की सोच कुछ न कुछ नया लाया है पर में हूँ की तेरी ही धुन गा रहा हूँ तुझे से खुद को रोशन करने की उम्मीद लगा रहा हूँ, मेरे मन को भी कर इतना रोशन की औरो की जिंदगी में उजाले भर दूं दूं इतनी खुशिया की उनको गमो से पार कर दूं





शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

पुरानी रचनाएँ

ज़िन्दगी मुस्कराना  चाहती है, पर होंठ है की सीए गए
परिंदों सा उड़ना था हमे  , पर- पर क़तर दिए गए 

तैरना चाहा तो दरिया सुख कर नाले बन गए 
दौड़ना  चाहा तो बेड़िया डाल दी गयी 

कुछ न चाहा था सिवा सकूँ के, पर वो भी न मिल सका 

कुदरत देती है वो जिनके सहारे हम न चल सके
जो थे हमारे सहारे वो कुदरत से मिल न सके 

रखता में संभाल उन कड़वी यादों को ,
ताकि हर पल मीठा लग सके नहीं 
तो हमे ता उम्र गम ही मिले

आज तो गम भी दोस्त नजर आते है,
 और ख़ुशी  से नजर चुराते है


टूट गया में लड़ता हुआ इस ज़माने से , 
करता नहीं कुछ सिवा नजरे चुराने से.
लगता है मुझे ही जीना न आया , 
वरना ज़माने ने कहां मुझे सताया .

वो तो और था  उनके नजरिये से मेरा नजरिया
 वरना जमाना तो बरसो से है
हम तो कल आये थे और आज है तो  कल चले  जायेंगे ,
 पर ये तो परसों भी है 

दुखाया हो किसी का दिल तो माफ़ करना , 
मैल दिलो के साफ़ करना 
छूट गए है हम से तो ,
 वो सारे कारज आप करना'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

Ravinder crash today

आज मेने जीत पाई अपने क्रोध पर शायद पहली बार ऐसा हुआ की में नहीं रविंदर नाराज होकर चला गया, पता है क्यों ? क्योंकि उसको मेने स्कैन करवाने से मना कर दिया. जब की वो खुद आज फिर १ बजे दफ्तर आया फिर भी उसका attitude उसे ले गया | भगवन जी शायद बहुत मुश्किल होता है क्रोध पर काबू पाना इसलिए तो इतना भरी आदमी भी काबू नहीं पा सका

और भी कह गया यहाँ ताला लगाकर कल से आने की जरूरत नहीं अब भला कल की छुटी भी मिल गयी

होता है mere  साथ हमेशा होता था उसके साथ तो आज ही हुआ अब देखते है उसे कौन मनाता है.

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

khali dil.....................

aaj phir likhne ka mann hua , office mein shanti si chai huyi है. मुझे आज अकेले फिर लिखने का मन किया तो में लिखने लगा, मुझे नहीं लगता की उन दोनों में से कोई भी अपने कार्य के प्रति निष्ठुर है उनके मन में जाने काया चल रहा है, शायद वो लोग एक बैठने का ठिकाना चाहते थे इसलिए ये दफ्तर खोल लिया, पर मुझे तो जीवन में बहुत कुछ करना है में ये सब कब करूँगा अगर मेरा धयेय पैसा कमाना होता और भटकना होता मोह माया के चक्कर में तो में सरकारी दफ्तर में रह कर भी बहुत कुछ कम सकता था, पर मेने वहां से इसलिए छोड़ा ताकि में इस दलदल से बचने के लिए.

दूसरा मतलब ये भी हो सकता है की हम तीनो में से किसी के पास पैसे नहीं जो हम यहाँ लगा सके और बिना पैसे लगाये तो कोई भी व्यापार तरकी नहीं दे सकता . 

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

First day

हमे बहुत ही दिनों बाद लिखने का मौका मिला bigadda पर लिखा करते थे जाने क्या हुआ की वो अब बंद हो गयी पर यहाँ नया मंच मिला. शायद ये और अछा हो . जीवन को सादगी से जीने के लिए सरकारी दफ्तर से भी इस्तीफ़ा दे दिया पर हमारे समाज को बैमानी ने इतने बुरे तरीके से जकड रखा है की कोई बदलने का नाम नहीं लेता उल्टा आप को बदल देंगे

कड़वे शब्द बोलता हूँ